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जिद जिसने कर दिये हौसले बुलंद

By: Team Aapkisaheli | Posted: 14 Sep, 2012

जिद जिसने कर दिये हौसले बुलंद
जिद नाम है उस हौसले का जिसमें नामुमकिन को मुमकिन बनाने का जुनून हो। बिरले ही होते हैं ऎसे जिद्दी लोग और उनके मजबूत इरादों के सामने दुनिया घुटने टेकने को मजबूर होती है। लगभग 1200 आविष्कार करने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन की प्रतिभा को उनके टीचर भी पहचान न सके। दिन-रात कल्पना की दुनिया में खोए रहने वाले एडिसन को वे मंदबुद्धि मानते थे। इसी आधार पर उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था। निर्धन परिवार में जन्मे एडिसन ट्रेन में अखबार बेच कर गुजारा करते थे। बिजली के बल्ब का आविष्कार करने के दौरान उनके सौ से भी ज्यादा प्रयास विफल हुए। लोगों ने उनका बहुत मजाक उडाया और उन्हें भविष्य में ऎसा न करने की सलाह दी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। अंतत: जब बल्ब की रौशनी से दुनिया जगमगा उठी तो लोग हैरत में पड गए। एडिसन को अपनी कोशिशों पर पक्का यकीन था। इसीलिए वह अडिग रहे। आसान नहीं होता अपनी बात पर अडिग रहना, पर जिसके इरादों में सच्चाई हो, उसे दुनिया की कोई भी ताकत झुका नहीं सकती।
हौसले होंगे कामयाब
जब भी दृढ इच्छाशक्ति की बात निकलती है तो दुष्यंत कुमार का यह शेर हमें बरबस याद आ जाता है- कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों..। साधनों की कमी की शिकायत करते हुए खुद कोई प्रयास न करना तो बेहद आसान है। ज्यादातर लोग करते भी यही हैं, लेकिन कुछ ऎसे भी होते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति ही उनकी सबसे बडी पूंजी होती है। बिहार के गया जिले के छोटे से गांव गहलौर के दलित मजदूर दशरथ मांझी की जिद के आगे पर्वत को भी झुकना पडा। उन्होंने राह रोकने वाले पहाड का सीना चीर कर 365 फीट लंबा और 30 फीट चौडा रास्ता बना दिया। दरअसल पहाडी का रास्ता बहुत संकरा और उबड-खाबड था। उनकी पत्नी उसी रास्ते से पानी भरने जाती थीं। एक रोज उन्हें ठोकर लग गई और वह गिर पडीं। पत्नी के शरीर पर चोट के निशान देख दशरथ को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उसी दम ठान लिया कि अब वह पहाडी को काटकर ऎसा रास्ता बनाएंगे, जिससे किसी को भी ठोकर न लगे। वह हाथों में छेनी-हथौडा लेकर पहाड काटने में जुट गए। तब लोग उन्हें पागल और सनकी समझते थे कि कोई अकेला आदमी पहाड काट सकता है भला! .पर उन्होंने अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनी। वह रोजाना सुबह से शाम तक अपने काम में जुटे रहते। उन्होंने 1960 में यह काम शुरू किया था और इसे पूरा करने में उन्हें 22 वर्ष लग गए। ..लेकिन अफसोस कि उनका यह काम पूरा होने से कुछ दिनों पहले ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। वह अपनी सफलता की यह खुशी उनके साथ बांट न सके। उनकी इस कोशिश से ही बेहद लंबा घुमावदार पहाडी रास्ता छोटा और सुगम हो गया। अब दशरथ इस दुनिया में नहीं हैं पर वह रास्ता आज भी हमें उनके जिद्दी और जुझारू व्यक्तित्व की याद दिलाता है। उनकी दृढ इच्छाशक्ति को सम्मान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने कर्मचारियों के लिए दशरथ मांझी पुरस्कार की शुरूआत की है।
गुस्सा भी हैं जरूरी
जिद की तरह गुस्सा भी हमारी नकारात्मक भावनाओं में शुमार होता है और इन दोनों का बडा ही करीबी रिश्ता है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, अगर किसी दुर्भावना की वजह से गुस्सा आए और कोई किसी को नुकसान पहुंचाने की जिद करे तो निश्चित रूप से यह खतरनाक प्रवृत्ति है। इससे इंसान केवल दूसरों का ही नहीं, बल्कि अपना भी अहित कर रहा होता है। हमारी मानसिक संरचना में ये दोनों भावनाएं बिजली की तरह काम करती हैं। अगर सही जगह पर इनका इस्तेमाल किया जाए तो चारों ओर रौशनी फैल सकती है। अगर इनका गलत इस्तेमाल हो तो पल भर में जल कर सब कुछ खाक हो सकता है। यहां असली मुद्दा नकारात्मक भावनाओं को सकारात्मक ढंग से चैनलाइज करने का है। अगर बच्चा अपनी मनपसंद चीज लेने की जिद करता है तो बडों को हमेशा उसकी जिद पूरी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उससे यह वादा लेना चाहिए कि तुम परीक्षा में अच्छे मार्क्स लाओ तो तुम्हारी मांग जरूर पूरी की जाएगी। इससे उसे यह एहसास होगा कि बिना मेहनत के कुछ भी हासिल नहीं होता और उसकी जिद पढाई की ओर रूख कर लेगी। गुस्से के सकारात्मक इस्तेमाल के संदर्भ में चिपको आंदोलन के अग्रणी नेता सुंदर लाल बहुगुणा द्वारा कही गई एक बात बरबस याद आ जाती है, पेड काटने वाले लोगों को देखकर मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आता है। इसलिए मैंने यह संकल्प लिया है कि इतने पेड लाऊंगा कि काटने वाले भले ही थक जाएं, फिर भी हमारी धरती हमेशा हरी-भरी बनी रहे। सच, लाचारी भरी शांति से तो ऎसा गुस्सा हजार गुना बेहतर है, जिससे देश और समाज का भला हो।
चुभेगी तभी तो बात बनेगी
कई बार हमें दुख पहुंचाने वाले या हमारे साथ बुरा बर्ताव करने वाले लोग अनजाने में ही सही, लेकिन हमारी भलाई कर जाते हैं। शोघ द्वारा पता चला है कि कई बार दूसरों द्वारा कही गई कडवी बात हमारे लिए शॉक ट्रीटमेंट का काम करती है। ऎसी बातें सुनकर हमारा सोया हुआ जमीर जाग उठता है। फिर हम कई ऎसे मुश्किल काम भी कर गुजरते हैं, जिनके बारे में आमतौर पर सोचना भी असंभव लगता है। अगर दक्षिण अफ्रीका के पीट्मेरीज्बर्ग स्टेशन पर उस टीटी ने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी का सामान ट्रेन की फर्स्ट क्लास की बोगी से बाहर न फेंका होता तो शायद आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता।

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