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बेटा ही क्यों, बेटी क्यों नहीं!

By: Team Aapkisaheli | Posted: 12 Apr, 2012

बेटा ही क्यों, बेटी क्यों नहीं!
आज भी समाज में बेटे और बेटी को समान दर्जा नहीं मिल पा रहा है। आज जब मेडिकल साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है और परिवार नियोजन के साधन अपना कर हम अपने परिवार का नियंत्रित रखने में सफल हो रहे हैं तब प्रीनेटल टेस्ट द्वारा कोई भी बेटे या बेटी को परिवार में लाने के लिए क्यों न स्वतंत्र होक् वैसे आजकल समाज में लोग, बेटियों की इच्छा करने लगे हैं, आए दिन समाचारों द्वारा ज्ञात होता है कि आजकल लडकियां गोद ली जा रही हैं तो यह भी जरूरी नहीं है कि कन्याभू्रण हत्या का कारण प्रीनेटल टेस्ट ही बने। दूसरी ओर कुछ लोगों का कहना है कि जहां एक मां को अपनी इच्छा के बिना अपनी अजन्मी पुत्री भ्रूण हत्या के लिए राजी होना पडे या अपने परिवार की खुशी के लिए इस मंत्रणा में शामिल होना पडे। इससे ज्यादा क्षोभ और दुख की बात हो ही नहीं सकती। यों तो आए दिन प्रबुद्ध वर्ग द्वारा टीवी रेडियो, अखबार, पत्र-पत्रिकाओं में लिंग अनुपात के बढते अंतर पर बहस की जाती है परंतु इसका नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है यानी बेटी को दोयम दर्जे का माना जाता है।
आंकडे गवाह
2001 की जनगणना के अनुसार 14 राज्यों के 122 जिलों में 6 वर्ष की उम्र के बच्चाों में 1,000 लडकों के बीच 900 या इससे भी कम लडकियां थीं। उत्तर प्रदेश में 10 तथा गुजरात में 16 जिले ऎसे हैं जहां लडकियों की संख्या, लडकों की तुलना में कमतर है। इसी संदर्भ में सन् 1990 के दशक में नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने एक टर्म निकाली थी, मिसिंग गर्ल एंड वूमेन। सन् 2001 में भारत की я┐╜स्त्रयों की जनसंख्या पुरूषों की तुलना में 35 मिलियन कम थी, उत्तरी भारत में यह अनुपात और बढा था। जोकि 0-6 वष्ा की उम्र की बच्चायों का था।
जांच सुविधा
भारत में सन 1970 में भ्रूण गर्भावस्था की जांच सुविधा की शुरूआत हुई थी। इस जांच का उद्देश्य भावी बच्चो की शारीरिक, मानसिक स्थिति का पता लगाना था ताकि मेंटली रिटार्टेड व हैंडीकैप बच्चो को जन्म लेने से रोका जा सके, ऎसे भ्रूण को हटाया जा सके परंतु यही सुविधा अनचाही बेटियों से छुटकारा पाने का जरिया बनती गई और 1980 तक इस सुविधा ने व्यवसाय का विकराल रूप धारण कर लिया और भ्रूण हत्या का मार्ग सुगम होता गया।
जागरूकता जरूरी
एक आविष्कार जिसने न सिर्फ यौन रोगों से रक्षा की है बल्कि परिवार नियोजन में योगदान भी दिया है, वह है कंडोम। जैसे कंडोम ने अनचाहे गर्भ से छुटकारा दिलाया है वैसे ही सरकार को कुछ ऎसी योजनाएं सोचनी चाहिए। जिनसे भ्राूण हत्याओं पर नियंत्रण पाया जा सके। प्रीनेटल टेस्ट को गैरकानूनी बनाने के बाद से कई परिवार अनचाही बेटी को संसार में लाने की मजबूरी झेल रहे हैं। जब उस कन्या का जन्म ही अनचाहा है तो पारिवारिक प्यार व लगाव की आशा करना व्यर्थ है। क्या यह संभव नहीं कि प्रीनेटल टेस्ट का सदुपयोग किया जाएक् जन्मदाताओं पर यह बंदिश क्यों हो कि उन्हें लडका/ल़डकी ही पैदा करना होगा। यह निर्णय हम उनकी इच्छा, पारिवारिक स्थिति या पहले बच्चो के लिंग पर क्यों नहीं छोड सकतेक् विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं में सशक्तिकरण आया है उनमें निर्णय लेने की हिस्सेदारी बढी है। पहले जहां 39 प्रतिशत महिलाएं ही घर के फैसलों में शामिल होती थी। अब 74 प्रतिशत भाग ले रही हैं, बच्चाों की शिक्षा व शादी जैसे मामलों में भी 42 प्रतिशत से बढकर अब 69 प्रतिशत महिलाएं भाग ले रही हैं। तो फिर अपनी कोख में पल रही कन्या के भू्रण की हत्या रोकने में भी उसे निर्णय लेना होगा। आज समान प्लेटफार्म पर खडी नारी को अपनी संतान के बारे में सही निर्णय लेना होगा। एक जननी की दृष्टि में बेटा-बेटी बराबर हो और वह भी संतान को जन्म देने का पूरा अधिकार रखे। तभी वह सही मायने में सशक्तिकरण की हकदार मानी जाएगी।

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