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रोकी जा सकती हैं बढती आत्महत्याएं

By: Team Aapkisaheli | Posted: 09 May, 2012

रोकी जा सकती हैं बढती आत्महत्याएं
कभी किसी स्कूल का छात्र तो कभी कोई मेडिकल स्टूडेंट,कभी कोई प्रेमी या प्रेमिका तो कभी कोई शादीशुदा महिला, कभी कर्ज से परेशान आदमी, तो कभी कोई किसान..., कारण अलग-अलग, हालात अलग-अलग, पर घटना सिर्फ एक किसी की मौत, आखिर कब रूकेगा ये सिलसिलाक् और अब तो इसके सबसे ज्यादा शिकार स्टूडेंट व युवा पीढी ही है। निराशा, डिप्रेशन, दबाव, लाचारी, बीमारी आदि कारण कई हैं पर क्या इस सबका आत्महत्या ही रास्ता हैक् पिछले दिनों मुंबई मे बडे तादाद में आत्महत्याएं हुई हैं। अगर हम भारत की बात करें तो हर साल भारत में लगभग एक लाख आत्महत्याएं होती हैं। दुनियाभर में हर साल में जिनती भी आत्महत्याएं होती हैं उसमें 10 प्रतिशत भागीदारी अकेले भारत की है। आखिर क्यों हो रही हैं इतनी आत्महत्याएंक्
को-ऑपरेटिव सिस्टम की जरूरत
मनोचिकित्सकों का कहना है कि आत्महत्या की बढती प्रवत्ति के लिए पूरी तरह से आज का कम्पेरेटिव सिस्टम (तुलनात्मक व्यवस्था) जिम्मेदार है। टीवी चेनलों पर दिखाए गए कार्यक्रमों के माध्यम से, स्कूल-कॉलेजों में ग्रेड के माध्यम से और घरों में भी आपसी तुलना का भूत हमारा पीछा नहीं छोडता। आज हर बच्चा अपनी सफलता को अपनी एकेडेमिक और व्यावसायिक सफलता से आंकता है। यदि इन दो क्षेत्रों मे वह सफल नहीं हो पाया तो उसे लगता है कि उसका जीवन व्यर्थ है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए हमें समाज का ढांचा बदलना होगा। हमें आज कम्पेरेटिव सिस्टम नहीं, को-ऑपरेटिव सिस्टम की जरूरत है। एजुकेशन, बिजनेस, एंटरटेनमेंट आदि क्षेत्रों में सामूहिक सफलता ही सफलता का असली मापदंड होना चाहिए,जैसे-क्लास में 15-15 बच्चाों का गु्रप बनाकर उन्हें पास या फेल करना चाहिए। समूह में से एक बच्चाा फेल हो तो पुरा गु्रप फेल। अब पास होने के लिए पूरा गु्रप कोशिश करेगा। अधिक उत्साह, लगन व हौसले के साथ काम होगा। तब स्थिति अच्छी और अलग होगी।
असहाय महसूस करते हैं
सिर्फ रैगिंग या पढाई का बोझ ही मेडिकल स्टूडेंटस में आत्महत्या के लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि समस्याएं और भी बहुत-सी हैं, जिसमें "फियर प्रेशर" और "मेडिकल प्रेशर" के साथ-साथ "रीजनलिज्म" भी एक कारण है। देश-विदेश से लोग मेडिकल इंस्टीट्यूट में पढने के लिए आते हैं। यहां पर तरह-तरह के दबाव महसूस करते है। प्रोफेशनल टीचर भी इतनी मदद नही करते। एक डर ये भी लगा रहता है कि हमारे पेरेंटस ने हमारे लिए इतनी भारी रकम खर्च की है, कहीं हम उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाए तोक्"" सहनशीलता की कमी
आज युवाओं के बीच संस्कारहीनता फैलती जा रही है। आज न पेरेंट्स ईश्वर में विश्वास रखते हैं न धैर्य से काम लेते हैं। आज पेरेट्स भी, जो खुद नहीं बन पाए,वह अपने बच्चाों को बनाने के लिए बेचैन रहते हैं। चाहे बच्चे को वो विषय पसंद हो या न हो। पहले ऎसी किताबें पढी जाती थी जिनकी कहानियां हमें जीने की नई प्रेरणा देती रहती थी। पर आज ऎसा नहीं है। साथ ही युवाओं में सहनशीलता भी नही रही। क्योंकि उन्हें वह माहौल ही नहीं दिया गया है। हर बच्चो पर मानसिक दबाव आत्महत्या का एक कारण मानसिक दबाव है। आजकल हर बच्चाया स्टूडेंट दबाव-तनाव में रहता है। उन्हें अपने आपको सिद्ध करना है। इसके लिए टीवी भी कम जिम्मेदार नहीं है जहां प्रोग्रामों में एक को ऊपर उठा देते हैं तो दूसरे को गिरा देते हैं। वे सभी को एक रेस में खडा कर देते हैं जहां सिर्फ भागते जाना ही उनकी नियति बन जाती है। जरा-सा लडखडाए नहीं कि सब कुछ खत्म, हमें समाधान के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इस पूरी मुहिम को पेरेंट्स को ही शुरू करना होगा क्योकि वे ही बच्चो को डगमगाने से बचा सकते हैं।
घर से हो पहल
आत्महत्याओं के लिए पेरेंट्स भी जिम्मेदार हैं। वे अपने बच्चाों को समझ सकते हैं। दुनिया उन्हें गलत समझे, ये बच्चो बर्दाश्त कर भी लेते हैं लेकिन मम्मी-पापा ही बच्चो को न समझ पाएं, ये बच्चो सह नहीं सकते। अगर बच्चो पेरेंट्स को अपने दिल की बात नहीं बताते तो आगे बढकर वे पहल करें। फिर देखें कि किस तरह पेरेट्स के विश्वास के साथ वे दुनिया से लड जाएंगे मगर लडखडाएंगे नहीं।
समाज भी जिम्मेदार
आजकल बढती आत्महत्याओं के लिए न केवल पेरेंट्स, टीचर व पडोसी जिम्मेदार हैं बल्कि पूरा समाज है। बढते बच्चो को देखकर हर कोई अपना नजरिया उस पर थोपने लगता है। अरे क्या कर रहे होक् अगर सांइस कर रहा है तो कॉमर्स करना चाहिए था और कॉमर्स कर रहा है तो मीडिया, और अगर कुछ नहीं कर रहा तो शादी क्यो नहीं कर रहा, वगैरह वगैरह.., इन्हीं सब दबावों के चलते आज के बच्चो, युवा जाने कितने तनावों से गुजरते हैं। जिनका हमें पता भी नहीं चलता। नतीजा घर से भागना या आत्महत्या।
क्या कर सकते हैं
इसके लिए एकजुट होकर प्रयास करने की जरूरत है। सबसे पहले पेरेट्स को आगे आना होगा। पढनी होगी बच्चाों की अनलिखी ख्वाहिश, सुननी होगी उसकी खामोशी। उसके संस्कारों मे ये घोल देना है कि "तुम सिर्फ तुम हो" पूरी तरह से संपूर्ण, पूरी तरह से सुरक्षित। तुम किसी के जैसे नहीं, कोई तुम्हारे जैसा नहीं। रही बात संघष्ा№ की, असफलताओं, हताशा और निराशा की तो वह जीवन का एक हिस्सा है। टीचर्स को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, पेरेंट्स के बाद अगर कोई बच्चो को इतने करीब से देखता है तो वो हैं टीचर, उन्हें बच्चाों की आपस में तुलना न करके उनके सामूहिक विकास पर बल देना चाहिए। दरअसल, पूरे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में, एक सकारात्मक सोच व दृष्टिकोण की जरूरत है। मिलकर सोचना है, बचाना है हमारे युवाओं को।

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