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किताबों का दर्द

By: Team Aapkisaheli | Posted: 09 Sep, 2009

किताबों का दर्द
किताबों की सुंदर दुनिया से बच्चा एक बार परिचित हो जाए तो जीवनभर यह चस्का नहीं छूट सकता। चाहें कितने ही अन्य माघ्यम आ जाएं। जो कुछ हमारे अंदर अच्छा होता है, संस्कार होते है उनमें पुस्तकों की भी महत्तवपूर्ण भूमिका होती है। युवाओं को कभी संघर्ष में बढते रहने की, कभी जीवन को गहराई से समझने की सीख देतीं है पुस्तकें।
पुस्तकों का महत्तव: प. नेहरू ने कहा था,"पुस्तकों के बगैर मैं दुनिया की कल्पना भी नहीं कर सकता हूं"। पुस्तक संस्कार मनुष्य में कभी खत्म नहीं हो सकते। जब तक उनमें जानने की जिज्ञासा है तब तक वह पुस्तकों से दूर नहीं जा सकता। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने समाज मे व्याप्त विषमता और विद्रूपता का मुकाबला लिखे हुए शब्दों को हथियार बनाकर किया था। हमारी घार्मिक पुस्तक गीता में भी कहा गया है की "ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है। सूरदास, तुलसीदास, मीरा, कबीर, निराला, दिनकर, महादेवी, प्रेमचंद आदि सर्जकों का अर्थवान साहित्य आज भी हमें आकर्षित करता है। सफदर हाशमी ने अपनी कविता "किताबें कुछ कहना चाहती हैं" में उन्होने किताब की महत्ता को बखूबी चित्रित किया है। पुस्तकों का अघ्ययन मनुष्य को, समाज को, और देश को स्थायी प्रतिष्ठा प्रदान करता है।
किताबों के चाहने वाले हुए कम: यह बडे दुख की बात है कि भागम-भाग के इस समय में और जिंदगी के लिए व्यवस्था बनाने में व्यस्त मनुष्य के पास इतनी फुरसत भी नहीं है कि वह पुस्तकों का अघ्ययन कर ज्ञान अर्जित कर सके। नई-नई पत्रिकाएं मनुष्य को इतना सतही ज्ञान उपलब्घ करा देती हैं कि वह अपने साथियों के बीच सशक्त बहस कर सकता है। ऎसे माहौल में पुस्तकों की महत्ता कम होती जा रही है। आज की युवा पीढी में साहित्य पठनीयता तो लगभग समाप्त हाती जा रही है। आजकल तो बच्चों के भाव व बुद्घि के विकास का मार्ग "कॉमिक्स" में उलझ कर अवरूद्घ हो जाता है। लोकगीतों व लोककथाओं को अपने बच्चों तक पहुंचाना तो हम कब के भूल चुके हैं।
किताबें पढने का संस्कार: व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को संवारने में किताबों का बहुत बडा योगदान है। किताबें सभ्यता की आंख होती है। हमें बच्चों को पुस्तकें भेंट स्वरूप देनी चाहिए। उन्हें शब्दों और चित्रों के बगीचे में सैर करने का अवसर देना चाहिए। उन्हे दुनियाभर के किरदारों से अवगत कराना चाहिए, जिससे दुनिया के बारे में उनके ज्ञान मे वृद्घि हो सके। कोर्स के अतिरिक्त किताबें पढने से बच्चा जिंदगी को सीखता है। बचपन ही वह समय है जब पुस्तक पढने का संस्कार डाला जाना चाहिए।
समस्याएं: स्वस्थ, मर्मस्पर्शी एंव स्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन जहा एक समस्या है वहीं प्रकाशित पुस्तकों को पाठक तक पहुंचाना भी एक विकट समस्या है। किताबों का मंहगा होना भी इसका एक तर्क है लेकिन किताबों से ठसा-ठस भरी हमारी कॉलेज या शहर-कस्बों के सरकारी एंव गैर-सरकारी पुस्तकालयों का प्रयोग कितने लोग करते है। अक्सर हम हर बात के लिए पश्चिम को कोसते है लेकिन पश्चिम में तो पुस्तकें अभी भी अपनी जगह बनाएं हुए हैं। पश्चिम में हर चीज एक क्रम में आई और संस्कार बनकर एक खास जरूरत के रूप में जीवन में शामिल हो गई। हर नई चीज का पुरानी चीजों के साथ समायोजन हो गया। लेकि न हमारे यहां हर नई चीज भडभडाते हुए पुरानी चीजों को रौंदती-कुचलती आई। परिणाम यह हुआ है कि पुरानी चीजें का महत्तव कम होता चला गया।
सबसे दुखद पहलू: किसी भी रेल्वे स्टेशन या बस स्टैंड के बुक स्टाल पर जो पत्र- पत्रिकाएं सजाई जाती है, ज्यादातर अश्लील साहित्यों से अटी पडी है। आपत्तिजनक पुस्तकों का यह खुला बाजार युवा पीढी को गुमराह कर रहा है। पैसा बनाने की मनोवृति ने घटिया या अश्लील पुस्तकों को बढावा दिया है। यह पुस्तक प्रेमियों का दुर्भाग्य ही है कि देश में लगभग 20 हजार से अघिक प्रकाशक होने के बावजूद लोग अच्छे साहित्य से वंचित हैं या फिर मंहगी किताबों की मार से पीडित है।

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