पटकथा समझने में आती है तब "हां" करता हूं : इरफान

By: Team Aapkisaheli | Posted: 00 Aug, 0000

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पटकथा समझने में आती है तब
फिल्मों में आने से पहले इरफान खान ने टीवी पर बहुत काम किया है। छोटे पर्दे से करियर की शुरूआत कर बडे परदे तक इरफान खान ने अपनी अभिनय प्रतिभा के बल पर जो मुकाम बनाया है, वह बिरले कलाकारों को ही नसीब होता है। इरफान खान ने साबित कर दिखाया कि वह सही मायनों में एक उत्कृष्ट कलाकार हैं। सीरियल "बनेगी अपनी बात" से लेकर "मकबूल", "नेमसेक", "लाइफ इन ए मैट्रो", "थैंक्यू", "यह साली जिन्दगी", सहित हर फिल्म में वह अपने अभिनय का एक अलग पक्ष लेकर दर्शकों के सामने लेकर आते रहे हैं। इस फिल्म में अपने काम करने के बारे में उनका कहना है कि मैंने थिएटर के दिनों में सीखा था कि यदि किसी फिल्म या नाटक की कहानी दो लाइन में आपको समझ में नहीं आती, तो उस फिल्म को करना बेकार है। जब तिग्मांशु धूलिया मेरे पास फिल्म "पानसिंह तोमर" का ऑफर लेकर आए, तो उन्होंने बताया कि यह एक ऎसे एथलेटिक की कहानी है, जिसने सेना में नौकरी करते हुए देश के लिए कई राष्ट्रीय पदक जीते। पर बाद में वह डाकू बना और पुलिस के हाथों मारा गया। इतनी सी कहानी सुनने के बाद मुझे इस बात ने उत्तेजित किया कि वह डाकू क्यों बना और मुझे लगा कि यह चरित्र और फिल्म के घटनाक्रम रोचक होंगे। इसलिए मैंने इसे करने के लिए हामी भरी। मैं हमेशा ऎसी कहानी को ही चुनता हूं, जो कि मैंने पहले न की हो, जिसमें मुझे अपनी अभिनय प्रतिभा को साबित करने का मौका मिले। जिसमें मनोरंजन हो और जो मुझे लंबे समय तक शूटिंग में व्यस्त रखे। इसी के साथ मैं यह भी देखता हूं कि मुझे किसके साथ काम करना है। पूर्व सैनिक व एथलेटिक से डाकू बने पानसिंह तोमर के जीवन को रेखांकित करने वाली इस फिल्म में इरफान खान ने पानसिंह तोमर का ही किरदार निभाया है। यह फिल्म तमाम अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में अच्छी खासी धाक जमा चुकी है। "पान सिंह तोमर" का प्रीमियर लंदन अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में हुआ। उसके बाद अबूधाबी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल, साउथ एशियन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और न्यूयॉर्क अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म दिखायी गयी। पहले लोगों को लग रहा था कि सत्यकथा पर बनी फिल्म शुष्क होगी, उसमें मनोरंजन के तत्व नहीं होंगे। मगर यह एक मनोरंजक फिल्म है। विदेशों में लोगों ने इस तरह की डकैतों पर बनी कोई फिल्म देखी नहीं थी। लोगों ने पहली बार देखा कि वास्तव में एक डकैत कैसा होता है। वह बीहड के जंगलों में सिर्फ बंदूक लेकर या घोडे पर बैठकर नहीं दौडता। उसे तो पैदल, नंगे पांव ही कांटों की चुभन वगैरह सहते हुए सफर करना पडता है। इस फिल्म में जो कुछ भी चित्रित किया गया है, वह एक कटु सत्य है, यथार्थ है। फिर अब दर्शक भी इसी तरह का यथार्थप्रद सिनेमा देखना चाहता है।
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