गैंग्स ऑफ वासेपुर : माफिया के संगठित अपराधियों का गिरोह

By: Team Aapkisaheli | Posted: 23 Jun, 2012

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गैंग्स ऑफ वासेपुर : माफिया के संगठित अपराधियों का गिरोह
फिल्म समीक्षा
बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा, गुनीत मोंगा
 निर्देशक : अनुराग कश्यप
कथा-पटकथा : सैयद जीशान कादरी, अखिलेश जायसवाल, सचिन लाडिया, अनुराग कश्यप
संगीत : स्त्रेहा खानवलकर
कलाकार : मनोज बाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दकी, पीयूष मिश्रा, रीमा सेन, जयदीप अहलावत, रिचा चbा, हुमा कुरैशी, राजकुमार यादव, तिग्मांशु धूलिया।
- राजेश कुमार भगताणी

आज अनुराग बॉलीवुड के सुप्रसिद्ध फिल्मकारों में शुमार होते हैं, जिनकी फिल्मों का दर्शकों को इंतजार रहता है। उनका अपना एक दर्शक वर्ग है जो उनकी फिल्में देखने को उतावला रहता है। इसका उदाहरण इस शुक्रवार को प्रदर्शित हुई उनकी हालिया कान फिल्म समारोह में शामिल होकर प्रसिद्धि बटोर चुकी फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर को देखते वक्त महसूस हुआ। अनुराग कश्यप ने हमेशा अछूते विषयों को अपनी फिल्मों में उठाया है। इस बार उन्होंने भारतीय कोल माफिया के संगठित अपराध गिरोह को प्रमुखता से उठाया है। कभी गांव देहात के रूप में प्रसिद्ध रहा वासेपुर अब तरक्की की राह पर है। यह धनबाद का एक खासी आबादी वाला इलाका है।
 अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर खून में लथपथ इतिहास की एक वास्तविक कहानी है, जिसमें लेखक जीशान कादरी ने कल्पना को भी जोडा है। इस फिल्म के लेखक जीशान कादरी स्वयं वासेपुर के हैं उन्होंने बचपन से जो कुछ देखा और भोगा है उसे ही कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें उन्होंने कुछ काल्पनिक दृश्यों की रचना की है। फिल्मों की भी लैंगिकता होती है। इस मायने में यह पूरी तरह से एक पुरूष फिल्म है। इस पिक्चर में जिस तरह लोगों को जान से मारा गया है, उसे देखकर आश्चर्य होता है कि आखिर क्योंकर सेंसर बोर्ड ने इतनी हिंसात्मक फिल्म को प्रदर्शित होने का प्रमाण पत्र दिया। जिस तरह से फिल्म में कुरैशियों का समुदाय अन्य मुसलमानों पर टूट पडता है, उसे देखकर हैरानी होती है।
अनुराग ने फिल्म में इतने हथियारों देसी कट्टों का शोर, रायफलें, रिवॉल्वर, कसाइयों के चाकू, दरांतियां का प्रयोग किया है जो फिल्म देखने के बाद भी दिलो-दिमाग पर हावी रहते हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर 1947 से 2004 के बीच बनते बिगडते वासेपुर शहर की कहानी है, जहां कोल और स्क्रैप ट्रेड माफिया का जंगल राज है। कहानी दो बाहुबली परिवारों पर आधारित है, जिसमें बदले की भावना, खून खराबा, लूट मार के साथ ही इसमें प्रेम कहानियों को भी जगह दी गई है। सरदार खान (मनोज वाजपेयी) की जिंदगी का एक ही मकसद है। अपने सबसे बडे दुश्मन कोल माफिया से राजनेता बने रामधीर सिंह (तिग्मांशु धूलिया) से अपने पिता की मौत का बदला लेना। सरदार खान की प्रेम कहानी के साथ उसका इंतकाम भी चलता रहता है और कहानी दूसरी पीढी पर आ जाती है। सरदार खान का बेटा (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) दुश्मन परिवार की बेटी से प्यार करने लगता है और सरदार के बदला अभियान पर विराम लगाने की कोशिश करता है। फिल्म में किरदारों के ह्वदय परिवर्तन से कहानी के उतार चढाव को समझाया गया है, लेकिन यह फिल्म की कहानी को पेचीदा बनाता है। कहानी में दहशत है और किसी की जान लेना मामूली बात। इसमें राजनीति, षड्यंत्र, अवैध कमाई और खून के खेल से पूरे शहर को लहुलुहान बताया गया है। ठेट देसी कहानी फिल्माने के नाम पर फिल्म में गालियों की भरमार है।
अनुराग ने सेंसर बोर्ड की इस पतली गली का भरपूर फायदा उठाया है और उन्होंने अपने किरदारों से भरपूर अपशब्दों का इस्तेमाल करवाया है। फिल्म का पूर्वार्द्ध बेहद थकाऊ और कुछ हद तक बोरियत भरा भी है इसकी वजह इसकी धीमी गति है। फिल्म इंटरवल तक बेहद धीमी गति से आगे बढती है लेकिन फिल्म का उत्तरार्द्ध बेहद तेज और सशक्त है। इस हिस्से में कई अच्छे दृश्य देखने को मिलते हैं, फिर चाहे वे मारधाड के हों या रोमांस के। अनुराग कश्यप ने अपनी इस फिल्म को पांच घंटे बीस मिनट का बनाया है, जिसे उन्होंने दो भागों में प्रदर्शित किया है। यह फिल्म का पहला भाग है दूसरा भाग बाद में प्रदर्शित किया जाएगा। निर्देशक के तौर पर अनुराग कश्यप का निर्देशन बेहद कसावट भरा है। फिर चाहे वह मध्यान्तर से पूर्व का हिस्सा हो या मध्यान्तर बाद का, अनुराग की दृश्यों पर गहरी पकड है। कई दृश्य देखने लायक हैं, लेकिन उलझी हुई कहानी के बजाय अगर वे एक सामान्य रिवेंज स्टोरी पर फिल्म बनाते तो यह अधिक लोगों को अपील कर सकती थी।
कहानी के मुख्य पात्र सरदार खान को अनुराग ने इतनी चतुराई से पर्दे पर उतारा है कि दर्शकों को वह सिनेमा घर से निकलने के बाद भी दिलो दिमाग में छाया रहता है। यह किरदार उसी तरह से अपनी छाप छोडने में कामयाब होता है जिस तरह कभी गब्बर सिंह, मोगैंबो, भीखू म्हात्रे ने दर्शकों पर छोडी थी। कुछ संवाद बेहतरीन हैं, लेकिन संवादों के जरिए दो पीढियों की कहानी को बया करने की कोशिश में फिल्म बोझिल सी हो गई है। फिल्म के मुख्य किरदारों ने छाप छोडने वाला अभिनय किया है। मनोज वाजपेयी ने बेहतरीन अभिनय किया है और अपने अभिनय के दम पर दर्शकों को सिनेमा घरों में रोकने की चुनौती में वे सफल रहे हैं। लेखक निर्देशक तिग्मांशु धूलियाने पहली बार कैमरे के सामने काम किया है और क्या खूब काम किया है। उनके अभिनय के देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बॉलीवुड को एक अच्छा खलनायक मिल गया है।
सबसे ज्यादा प्रभावी काम नवाजुद्दीन सिद्दीकी का रहा है। उनके लिए सिर्फ यह कहा जा सकता है कि वे बॉलीवुड के ताजा सितारों की खोज में सर्वश्रेष्ठ खोज हैं। उनके संवाद बोलने का अंदाज, भावों को चेहरे पर लाने का अंदाज सब कुछ प्रभावी है। इस फिल्म में उन्होंने नई उम्र के प्रेमी की भूमिका में सफल प्रयास किया है। रीमा सेन और रिचा चbा के लिए करने को बहुत कम था, लेकिन दोनों ही ठीक ठाक रहीं। फिल्म में जहां निर्देशन और अभिनय शानदार है वहीं इस फिल्म का बैकग्राउण्ड म्यूजिक फिल्म की जान है। महिला संगीतकार स्त्रेहा खानवलकर ने बेहतरीन संगीत दिया है। उन्होंने निर्देशकीय सोच को परवान चढाते हुए दृश्यों की पृष्ठभूमि के अनुरूप संगीत रचना की है। फिल्म का छायांकन बेहतरीन है। अंधेरे में फिल्माये गये दृश्यों में जरूर कैमरे की नाकामी कुछ नजर आती है।
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