3 तलाक पर SC में सुनवाई जारी, देश के बड़े वकील रख रहे है ये दलीलें

By: Team Aapkisaheli | Posted: 11 May, 2017

3 तलाक पर SC में सुनवाई जारी, देश के बड़े वकील रख रहे है ये दलीलें
नई दिल्ली। देश की सर्वोच्च अदालत में गुरुवार को मुसलमानों में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुपत्नी प्रथा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हुई। यह सुनवाई लगातार 10 दिनों तक चलेगी। कोर्ट ने कहा कि वह इस बात पर विचार करेगा कि क्या तीन तलाक मुसलमानों के मूल अधिकार का हिस्सा है? प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर की अगुआई वाली संविधान पीठ ने कहा कि वह यह भी देखेगी कि क्या तीन तलाक लागू किए जाने योग्य मूलभूत अधिकार का हिस्सा है? हालांकि अदालत ने शुरू में ही साफ कर दिया कि वह बहुविवाह के मुद्दे पर विचार नहीं करेगी, क्योंकि बहुविवाह का मुद्दा तीन तलाक से संबंधित नहीं है। मसले पर जिरह के दौरान याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अगर तीन तलाक इस्लाम का मूलभूत अधिकार का हिस्सा होता, तो बहुत सारे मुस्लिम देशों ने इस पर बैन नहीं लगाया होता। इस पर कोर्ट ने कहा कि वह उन कानूनों पर नजर डालेगा, जिन्हें तीन तलाक बैन करने वाले देशों ने लागू किया है।
इस सुनवाई में पहले तीन दिन तीन तलाक को चुनौती देने वालों को मौका मिलेगा, फिर तीन दिन इसका विरोध करने वालों को मौका दिया जाएगा। चुनौती देने वालों को बताना पड़ेगा कि धर्म की स्वतंत्रता के तहत तीन तलाक नहीं आता, वहीं डिफेंड करने वालों को यह बताना पड़ेगा कि यह धर्म का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि मामले से जुड़े विभिन्न पक्षों को बेंच द्वारा तय किए गए दो सवालों पर जिरह करने के लिए दो-दो दिन मिलेंगे। इसके अलावा, एक दिन प्रतिवाद करने के लिए भी मिलेगा। अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि दलीलों को दोहराए जाने पर वह वकीलों को रोक देगा। कोर्ट ने कहा, ‘हर पक्ष जो भी दलील देना चाहे, दे सकता है, लेकिन किसी तरह का दोहराव नहीं होना चाहिए। वकीलों को तीन तलाक की वैधता के विषय पर फोकस करना होगा।’ अदालत में दाखिल विभिन्न याचिकाओं में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह को मूलभूत अधिकारों का हनन बताया गया है। संविधान पीठ ने कहा, ‘अगर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ट्रिपल तलाक धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े मौलिक अधिकार का हिस्सा है, तो हम कोई दखल नहीं देंगे। लेकिन अगर मामला धार्मिक मौलिक अधिकार से जुड़ा नहीं निकला, तो आगे सुनवाई जारी रहेगी।’ वहीं मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, जस्टिस नरिमन ने कहा कि एक बार में तीन तलाक देने के मुद्दे पर अदालत विचार करेगी, तीन महीने के अंतराल पर दिए जाने वाले तलाक पर विचार नहीं किया जाएगा। गौरतलब है कि इस संविधान पीठ में चीफ जस्टिस खेहर के अलावा जस्टिस कुरियन जोसेफ, आरएफ नरीमन, यूयू ललित और अब्दुल नजीर शामिल हैं, जो सभी अलग-अलग धर्म से ताल्लुक रखते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को इस मामले की सुनवाई में अमीकस क्यूरी के तौर पर कोर्ट की मदद करने के लिए मंजूरी दी है। खुर्शीद ने कोर्ट से कहा कि ट्रिपल तलाक कोई मुद्दा ही नहीं है, क्योंकि तलाक से पहले पति और पत्नी के बीच सुलह की कोशिश जरूरी है। अगर सुलह की कोशिश नहीं हुई तो तलाक वैध नहीं माना जा सकता। एक बार में तीन तलाक नहीं, बल्कि यह प्रक्रिया तीन महीने की होती है। जस्टिस रोहिंग्टन ने खुर्शीद से पूछा, क्या तलाक से पहले सुलह की कोशिश की बात कहीं कोडिफाइड है। खुर्शीद ने कहा - नहीं। कोर्ट ने खुर्शीद से यह भी जानना चाहा कि क्या तीन तलाक देने के बाद सुलह की कोशिश को इस व्यवस्था का हिस्सा बनाया गया है? खुर्शीद ने इसका भी नाम में जवाब दिया। कोर्ट ने यह भी जानना चाहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या है? क्या इसका मतलब शरीयत है या कुछ और? खुर्शीद ने अदालत में यह भी बताया कि अगर कोई शख्स एक बार भी तलाक तलाक बोल देता है और अगले तीन महीनों में इस वापस नहीं लेता, तो यह एक वैध तलाक है।
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने वकील कपिल सिब्बल के जरिए खुर्शीद की उस दलील का समर्थन किया, जिसमें उन्होंने तलाक को नॉन इश्यू करार दिया था। कपिल सिब्बल ने कहा, यह पर्सनल लॉ का मामला है। सरकार तो कानून बना सकती है लेकिन कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। इस पर जस्टिस कूरियन ने कहा, ये मामला मौलिक अधिकारों से भी जुड़ा है। जस्टिस रोहिंग्टन ने केंद्र से पूछा, इस मुद्दे पर आपका क्या स्टैंड है? केंद्र की ओर से एएसजी पिंकी आनंद ने कहा, सरकार याचिकाकर्ता के समर्थन में है कि ट्रिपल तलाक असंवैधानिक है, बहुत सारे देश इसे खत्म कर चुके हैं।
प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ सात याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। इनमें पांच याचिकायें मुस्लिम महिलाओं ने दायर की हैं जिनमें मुस्लिम समुदाय में प्रचलित तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देते हुए इसे असंवैधानिक बताया गया है। संविधान पीठ के सदस्यों में सिख, ईसाई, पारसी, हिन्दू और मुस्लिम सहित विभिन्न धार्मिक समुदाय से हैं.इस पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन, न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर शामिल हैं।
इस मामले में केंद्र सरकार की ओर से दायर हलफनामे में कहा गया है कि ट्रिपल तलाक के प्रावधान को संविधान के तहत दिए गए समानता के अधिकार और भेदभाव के खिलाफ अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। केंद्र ने कहा कि लैंगिक समानता और महिलाओं के मान सम्मान के साथ समझौता नहीं हो सकता। केंद्र सरकार ने कहा है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में महिला को जो संविधान में अधिकार दिया गया है उससे वंचित नहीं किया जा सकता। तमाम मुस्लिम देशों सहित पाकिस्तान के कानून का भी केंद्र ने हवाला दिया जिसमें तलाक के कानून को लेकर रिफॉर्म हुआ है और तलाक से लेकर बहुविवाह को रेग्युलेट करने के लिए कानून बनाया गया है।
सुनवाई के दौरान तीन तलाक को लेकर केंद्र सरकार ने कोर्ट के सामने कुछ सवाल रखे-
1. धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तीन तलाक, हलाला और बहु-विवाह की इजाजत संविधान के तहत दी जा सकती है या नहीं ?
2. समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए?
3. पर्सनल लॉ को संविधान के अनुछेद 13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं?
4. क्या तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है, जिस पर भारत ने भी दस्तखत किये हैं?
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दलील
- ट्रिपल तलाक को महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन बताने वाले केंद्र सरकार का रुख बेकार की दलील है।
- पर्सनल लॉ को मूल अधिकार की कसौटी पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
- ट्रिपल तलाक, निकाह हलाला जैसे मुद्दे पर कोर्ट अगर सुनवाई करता है तो यह जूडिशियल लेजिस्लेशन की तरह होगा।
- केंद्र सरकार ने इस मामले में जो स्टैंड लिया है कि इन मामलों को दोबारा देखा जाना चाहिए, यह बेकार का स्टैंड है।
ट्रिपल तलाक मामले में सुप्रीम कोर्ट में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लिखित जवाब दाखिल कर कहा है-
- ट्रिपल तलाक के खिलाफ दाखिल याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।
- मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत सुरक्षा मिली हुई है, उसे मूल अधिकार की कसौटी पर नहीं आंका जा सकता।
- कोर्ट पर्सनल लॉ की दोबारा समीक्षा नहीं कर सकती, उसे नहीं बदला जा सकता। कोर्ट पर्सनल लॉ में दखल नहीं दे सकती।
- मुस्लिम पर्सनल लॉ में एक बार में ट्रिपल तलाक, हलाला और बहु विवाह इस्लाम धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है और वह मुस्लिम पर्सनल लॉ के चारों स्कूलों द्वारा परिभाषित है।
- मुस्लिम पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्छेद-25, 26 व 29 में संरक्षित है, क्या इसकी व्याख्या या रिव्यू हो सकता है?
- संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का जहां तक सवाल है तो वह एग्जेक्युटिव के खिलाफ लोगों को अधिकार मिला हुआ है लेकिन यह प्राइवेट पार्टी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं हो सकता।
- किसी व्यक्तिगत शख्स के खिलाफ इसे लागू नहीं कराया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत जनहित याचिका का इस्तेमाल प्राइवेट शख्स के खिलाफ इस्तेमाल के लिए नहीं हो सकता, क्योंकि यह मामला पर्सनल है।
- सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कई मामलों में यह व्यवस्था दे रखी है कि किसी व्यक्ति विशेष या आइडेंटिकल केस जूडिशियल रिव्यू नहीं हो सकता।
- सवाल था कि क्या बहुविवाह संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 के खिलाफ है? क्या एकतरफा तलाक लिया जाना समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? एक से ज्यदा पत्नी रखा जा सकता है, क्या यह क्रूअल्टी नहीं है? तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह मामला विधायिका का है, कोर्ट इस मालमे में विधान नहीं बना सकती।
- बोर्ड की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि संवैधानिक स्कीम के तहत जूडिशियरी का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन धर्म और धार्मिक कार्यक्रम को कोर्ट तय नहीं कर सकता। अगर किसी धार्मिक मसले पर विभेद होगा तो धार्मिक ग्रंथ व किताबों का सहारा लिया जाएगा। धार्मिक सवाल पर कोर्ट के पास अपना विचार रखने का स्कोप नहीं है।
- इस्लाम में शादी को सिविल कॉन्ट्रैक्ट माना जाता है। शरियत शादी को जीवन भर का साथ मानता है। इसे टूटने से बचान के तमाम प्रयास किए जाते हैं, लेकिन इसे अखंडनीय नहीं माना जाता और जबरन रहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता।
- शादी के वक्त ही तलाक आदि के प्रावधान के बारे में पता होता है और शर्त मानने या न मानने के लिए पार्टी स्वतंत्र होती है।
- एक बार में तीन तलाक का जहां तक सवाल है तो यह अवांछनीय जरूर है लेकिन तीन तलाक से शादी खत्म हो जाती है। तीन तलाक कहने के बाद पत्नी का दर्जा खत्म हो जाता है।
- मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद 25 व 26 में प्रोटेक्ट किया गया है।
- पर्सनल लॉ सांस्कृतिक मुद्दा है और इसे प्रोटेक्शन दिया गया है। कोर्ट पर्सनल लॉ में दखल नहीं दे सकती।
- जहां भी दुनिया में पर्सनल लॉ में बदलाव हुआ है तो वह भारतीय सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों से अलग है। भारतीय संदर्भ में उसे देखना होगा। अगर उसमें बदलाव हुआ तो इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों के साथ न्याय नहीं होगा।
लॉ बोर्ड के सवाल
इसके तहत कई सवाल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से कोर्ट के सामने रखे गए-
- क्या यह ट्रिपल तलाक आदि के खिलाफ दाखिल याचिका विचार योग्य है ?
- क्या पर्सनल लॉ मूल अधिकार की कसौटी पर टेस्ट हो सकता है?
- क्या कोर्ट धर्म और धार्मिक लेख की व्याख्या कर सकता है?
जमियत उलेमा-ए-हिंद
जमात उलेमा-ए-हिंद ने भी ट्रिपल तलाक के मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपना लिखित पक्ष पेश किया है।
- सुप्रीम कोर्ट सिर्फ उसी कानून को देख सकती है जो आर्टिकल 13 के अंदर कानून की परिभाषा में आता है।
- मुस्लिम पर्सनल लॉ खुदाई यानी डिवाइन लॉ है। यह लॉ आर्टिकल 13 के तहत नहीं है इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा नहीं कर सकता। - - पहले भी ऐसे मौके आए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने से मना किया है।
- सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कहा है कि किसी धर्म की सही प्रैक्टिस क्या है, यह उसी धर्म के लोग ही तय करेंगे न कि कोई बाहरी एजेंसी तय करेगी। पहले पांच जजों की बेंच कह चुकी है।
- शिरूर मठ के मामले में 1954 में, फिर कृष्णा सिंह मामले में, 1981 में मथुरा अहीर मामले में कह चुकी है कि वह धर्म ही तय करेगा कि हमारा धार्मिक व्यवहार क्या है, तो इसमें भी किसी आउटसाइडर एजेंसी की जरूरत नहीं है।

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