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बोलने में छुपा है हैल्थ का राज

By: Team Aapkisaheli | Posted: 07 Dec, 2012

बोलने में छुपा है हैल्थ का राज
मनुष्य क्रियाओं का संबंध उसके स्वास्थ्य से किसी न किसी रूप में होता है। या तो उसकी क्रिया उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करती है या उसका स्वास्थ्य उसकी क्रियाओं को प्रभावित करता है। ज्यादातर यह संबंधी द्विमुखी ही होता है यानी व्यक्ति की क्रिया उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करती है एवं उसका स्वास्थ्य भी उसकी क्रियाओं पर किसी न किसी प्रकार प्रभाव डालता है लेकिन बोलने की क्रिया का भी व्यक्ति के स्वास्थ्य से संबंध हो सकता है, यह थोडा अजीब सा लगता है। जिस प्रकार मनुष्य की अधिकांश शारीरिक-मानसिक क्रियायें यथा-ह्वदय धडकना, नाडी चलना, सांस लेना, रक्त का परिसंचरण होना, सोचना, चिंतन करना, समझना इत्यादि स्वास्थ्य से संबंधित होती हैं ठीक उसी प्रकार उसकी बोलने की क्रिया भी स्वास्थ्य से संबंध रखती है। अत: व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। आमतौर से व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना प्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को ही प्रभावित करता है। चूंकि मानसिक एक दूसरे से परस्पर जुडे हुए हैं और दोनों एक-दूसरे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते रहते हैं, अत: व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना प्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित तो करता ही है, परोक्ष रूप से शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता रहता है। बोलने की क्रिया मानव जीवन का अभिन्न अंग है। इसके अभाव में मनुष्य का सामाजिक जीवन कठिन है। मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा वातावरण की जिन घटनाओं व स्थितियों को देखता, सुनता, अनुभव करता एवं समझता है उसके प्रति उसके मन में प्रतिक्रिया अनिवार्य रूप से होती है। आज अनेक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों, शोधों एवं पर्यवेक्षणों द्वारा यह सिध्द हो चुका है कि मानव मन के अंदर संपादित प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति अनिवार्य है चाहे अभिव्यक्ति किसी भी रूप में हो। यदि व्यक्ति की इन आंतरिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति न हो या अभिव्यक्ति में व्यवधान उत्पन्न हो तो मानव मन में तनाव उत्पन्न होता है। व्यक्ति शांति व सुख पाने की चाह में हमेशा तनावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश में लगा रहता है। जब व्यक्ति तनाव की शाब्दिक अभिव्यक्ति यानी वाक अभिव्यक्ति में अपने को असमर्थ पाता है तो वह इसके लिये अनुचित साधनों का सहारा लेता है, जैसा-कक्षा में जो शिक्षक छात्रों के अवांछित व्यवहारों से खिन्न होने के बाद उन्हें पीटने, डांटने-फटकारने या उपदेशात्मक रूप में अपनी भडास निकालने में असमर्थ होता है, वह परीक्षा में उत्तर पुसित्काओं के मूल्यांकन के समय या प्रायोगिक परीक्षा में छात्रों को कम अंक प्रदान करके अपने असंतोष को अभिव्यक्त करता है। जब तक वह अपने इस असंतोष या खिन्नता को अभिव्यक्त नहीं कर लेता, तब तक तनाव के कुरेदन से परेशान रहता है और इस तनाव को व्यक्त करके परेशानीयुक्त परिस्थिति से छुटकारा पाने के लिये प्रयत्नशील रहता है। ऎसी दशा में सिर्फ शिक्षक ही नहीं, सभी व्यक्तियों की यही स्थिति होती है और सभी मनुष्य अभिव्यक्ति के अभाव में तनाव से थोडा-बहुत अवश्य ही ग्रसित रहते हैं। तनाव के कारण व्यक्तियों में संवेगात्मक आस्थरता आ जाती है। उनका मानसिक संतुलन बिगड जाता है। फलस्वरूप वे अवांछित व्यवहार या समाजविरोधी व्यवहार करने को बाध्य होते हैं। ऎसे अवांछित व्यवहार ही मानसिक अस्वस्थता का संकेत देते हैं। तनाव से ग्रस्त या संवेगात्मक रूप से अस्थिर व्यक्ति के रक्त में कुछ रसायनिक तत्वों जैसे जिंक, सीसा, पारा इत्यादि की मात्रा असंतुलित हो जाती है। साथ ही ग्रंथियों के स्त्राव भी अनिश्चित मात्रा में एवं अनियमित ढंग से होने लगते है जिसकी शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। अत: मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये भी तनाव से या अन्य अवांछित संवेगात्मक परिस्थितियों से मुक्त होना जरूरी है। चूंकि तनावपूर्ण बातों को अभिव्यक्त कर देने से तनाव से मुक्ति मिलती है, अत: मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए अभिव्यक्ति अनिवार्य है।

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